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Padmaavat Movie Review : भंसाली की इस फिल्म में 'कहानी' के अलावा सब कुछ है


पद्मावत को देखने के बाद लोग ये जरूर कहेंगे कि ये संजय लीला भंसाली की सबसे कमजोर फिल्म है

निर्देशक: संजय लीला भंसाली
कलाकार: दीपिका पादुकोण, रणवीर सिंह, शाहिद कपूर और रजा मुराद
जितनी उत्सुकता पद्मावत को लेकर हाल के दिनों में हुई है उतनी उत्सुकता जनता के बीच सालों के बाद देखने को मिली है. जाहिर सी बात है अगर किसी फिल्म में रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण एक साथ आ रहे हों और वो भी संजय लीला भंसाली के निर्देशन में तो जनता में उत्साह देखना लाजमी है और अगर बीच में करणी सेना के लोग इसमें तड़का मार देते हैं तो वो उत्साह दो गुना होना सुनिश्चित है.
कुछ यही हुआ है संजय लीला भंसाली की पद्मावत के साथ. अब इस फिल्म के साथ पिछले कुछ महीनों में जो कुछ भी विवाद हुए हैं उसके बारे में बहस करना बेकार है क्योंकि फिल्म देखने के बाद आप यही कहेंगे कि आखिर करणी सेना किस बात को लेकर इतना हो हल्ला मचा रही थी. फिल्म के डिस्क्लेमर में संजय लीला भंसाली ने बयां कर दिया है कि सब कुछ फिल्म में काल्पनिक है.
रबड़ की तरह खिंची कहानी 
फिल्म की कहानी शुरू होती है अफगानिस्तान में जहां अलाउद्दीन खिलजी (रणवीर सिंह) के चाचा जलालुद्दीन खिलजी (रजा मुराद) अपनी एक और फतह का जश्न मना रहे हैं. वहीं पर जब अलाउद्दीन की एंट्री होती है तो उसके स्वाभाव का स्वाद दर्शकों को मिल जाता है कि वो आगे क्या उम्मीद कर सकते हैं.
उसके बाद हमें दर्शन होते हैं महारावल रतन सिंह (शाहिद कपूर) और पद्मावती (दीपिका पादुकोण) की प्रेम कहानी के, जिसके तुरंत बाद रतन सिंह पद्मावती से ब्याह करके उसे मेवाड़ ले आते हैं. जब महाराज का कुलगुरु उनको प्रेम की अवस्था में देखने की कोशिश करता है और जब इसकी भनक पद्मावती और रतन सिंह दोनों को लग जाती है तो इस अपराध के लिए उसको देश निकाला दे दिया जाता है.
बाद में यही कुलगुरु जब अलाउद्दीन से मिलकर पद्मावती की सुंदरता का बखान करता है और कहता है कि अलाउद्दीन उसके बिना अधूरा है तब अल्लाउद्दीन के मन में उसे पाने की चाहत जाग जाती है और फिर अपनी सेना के साथ दिल्ली से मेवाड़ की ओर कूच कर जाता है. फरेब की मदद लेकर अलाउद्दीन रावल रतन सिंह को कैद करके दिल्ली ले आता है और यही शर्त रखता है कि महाराज को छुड़ाने के लिए पद्मावती को दिल्ली आना पड़ेगा. आखिर में मेवाड़ के महल की सभी औरतों को अपना सम्मान बचाने के लिए जौहर का सहारा लेना पड़ता है.
शानदार सिनेमैटोग्राफी
पद्मावती में वो सब कुछ है जो आप सालों से संजय लीला भंसाली की फिल्मो में देखते आए हैं. कैनवास बहुत बड़ा है, हर फ्रेम फिल्म का पेंटिंग सरीखा लगता है यानी प्रोडक्शन वैल्यू में किसी भी बात की कमी नहीं की गई है. फिल्म का जो बजट है वो फिल्म के हर फ्रेम में दिखाई देता है. लेकिन लगता है कि अपनी फिल्म को एक ग्रैंड फिल्म बनाने के चक्कर में संजय लीला भंसाली बाकी चीज़ों पर उतना ध्यान नहीं दे पाए हैं. कहने का आशय यही है कि फिल्म में सब्स्टन्स की कमी पूरी तरह से दिखाई देती है. अगर यह कहें कि पद्मावत भंसाली की फिल्मोग्राफी में आगे चलकर एक कमजोर फिल्म मानी जाएगी तो यह कही से गलत नहीं होगा. कहानी इसकी कुछ शब्दों में बयान की जा सकती है लेकिन लगभग पौने तीन घंटे इसको कहने में लगा दिए गए है और इस बात का औचित्य कहीं से भी नहीं दिखाई देता है.
अभिनय
अभिनय के मामले में रणवीर सिंह अलाउद्दीन खिलजी के रूप में जमे हैं. फिल्म में उन्होंने कहीं भी कोशिश नहीं की है कि लोग उनके किरदार से प्रेम करें. फिल्म में ऐसे कई सीन्स हैं जहां पर उनको एक क्रूर सुल्तान के रूप में दिखाया गया है और उन सीन्स में उनके लिए मुंह से वाह वाही ही निकलती है. खिलजी इतिहास का एक ऐसा किरदार है जिसके बारे में कुछ ज्यादा लिखा नहीं गया इसलिए जाहिर सी बात है जो निर्देश उनको निर्देशक की ओर से मिले होंगे उसी को अपना बाइबल मान लिया होगा और शायद यही वजह है कि एक रिफरेन्स होने की वजह से उनका काम शानदार दिखाई देता है.
शाहिद कपूर मेवाड़ के महाराजा के रोल में हैं और उनके भी अभिनय में ईमानदारी दिखाई देती है. राजपूताना शान से लैस वो पूरी तरह से एक राजपूत महाराज दिखाई देते हैं. दीपिका पद्मावती के मुख्य किरदार में हैं और उनका भी काम फिल्म में शानदार है लेकिन यहां पर मैं इस बात को कहूंगा कि जितना चुनौती भरा रोल उनका बाजीराव मस्तानी में था उतनी चुनौती उनके पद्मावती के किरदार में नहीं नज़र आती हैं.
स्टोरी से बड़ी सजावट
फिल्म में अगर किसी से कुछ गलती हुई है तो वो निश्चित रूप से संजय लीला भंसाली से ही हुई है क्योकि फिल्म का हर डिपार्टमेंट अपने काम में सजग और सटीक दिखाई देता है. लेकिन फिल्म को ग्लॉस और एक रंगीन फ्लेवर देने के चक्कर में भंसाली फिल्म के सोल के साथ समझौता कर बैठे हैं. इस फिल्म में हर कुछ स्टीरियोटाइप यानी रूढ़िबद्ध दिखाई देता है. अगर बचपन में हमने राजस्थान के राजपूतों के जो किस्से पढ़े थे या फिर कोई चित्र देखा था तो यह फिल्म उसी सोच को और भी गहरा करती है.
कहने का मतलब यह है कि किरदारों के पोर्ट्रेअल और उस समय की सभ्यता के मामले में फिल्म में नयापन कुछ भी नहीं दिखाई देता है. चाहे उस वक़्त का माहौल हो या फिर लोगों के तौर तरीके या फिर तहजीब का अंदाज यह सब कुछ स्टीरियोटाइप्ड लगता है. बाजीराव मस्तानी की सफलता के पीछे एक बड़ा हाथ था फिल्म की रफ़्तार जो इस फिल्म में कहीं पर जाकर थम सी जाती है.
कैनवास और रणवीर के लिए देखें फिल्म
फिल्म के गानों को अपने संगीत से खुद भंसाली ने इस बार भी पिरोया है और फिल्म के मूड के हिसाब से गाने अच्छे लगते हैं. सुदीप चटर्जी की सिनेमोटोग्राफी आला दर्जे की है. जाहिर सी बात है फिल्म को देखते वक़्त लोगो के जहन में बाहुबली का ख्याल भी आएगा और कहना पड़ेगा कि अगर स्पेशल इफेक्ट्स की बात हो रही है तो बाहुबली पद्मावत से कोसों आगे है. कहानी की बात तो हम यहां पर करेंगे ही नहीं.
आप इस फिल्म को इसलिए देख सकते हैं कि इसमें संजय लीला भंसाली का ग्रैंड कैनवास आपको फिल्म के शुरू से अंत तक नज़र आएगा लेकिन अगर आप एक सटीक कहानी ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे तो आपको निराशा ही मिलेगी. राजपूतो की आन बान शान और वही पिक्चर परफेक्ट फ्रेम आपको कुछ समय के बाद बोर करना शुरू कर देंगे. शुक्र है रणवीर सिंह का क्योंकि जब भी वो स्क्रीन पर आते हैं, एक तरह से बोरियत का सिलसिला खत्म हो जाता है. पद्मावत के बारे में यही कहूंगा कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं.

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